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Iriyavahiyan-Sutra

इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि इच्छं।
इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे।
पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, ओसा उत्तिंग-पणग
दगमट्टी-मक्कड़ा-संताणा-संकमणे ।

जे मे जीवा विराहिया ।
एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया। अभिहया,
वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया,
उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया तस्स
मिच्छामि दुक्कड़म् ।


भावार्थ:


हे भगवंत स्वेच्छा से ईर्यापथिकी-प्रतिक्रमण करने की मुझे आज्ञा दो । (गुरु उसको प्रत्युत्तर में - 'पडिक्कमेह'- प्रतिक्रमण करो' इस प्रकार कहे) शिष्य कहे कि-मैं इच्छा करता हूँ। आपकी यह आज्ञा स्वीकारता हूँ। अब मैं रास्ते में चलते हुए जीव-विराधना का प्रतिक्रमण अन्तःकरण की भावना पूर्वक शुरु करता हूँ। जाने आने में मेरे द्वारा त्रस जीव, बीज, हरि-वनस्पति ओस, चींटी के बिल, सेवाल-काई, कच्चा पानी, मिट्टी या मकड़ी का जाला आदि दबा दिये गए हो। जाने आने में मेरे द्वारा यदि कोई एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, या पंचेंद्रिय जीवों की विराधना हुई हो। मेरे द्वारा किसी जीव के ठोकर लगी हो, धूल से ढंका हो, जमीन के साथ घिसा हो, आपस में शरीर से टकराया  हो, स्पर्श कराया हो, दुःख दिया हो, खेद पहुँचाया हो, डराया हो या त्रास पहुंचाया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा हो, प्राण से रहित किया हो और उससे जो कुछ विराधना हुई हो, उससे सम्बन्धित मेरा सारा दुष्कृत मिथ्या हो। अर्थात् उन सब पापों का मैं मिच्छामि दुक्कडम् देता हूँ।

 

प्र. इस सूत्र में क्या किया जाता है ?.
उ. इस सूत्र में प्रायश्चित अर्थात् अपने पापों की आलोचना की जाती है।

प्र. इसमें किन किन पापों की आलोचना की जाती है ?
उ. अपनी जाने आनेकी क्रिया में यदि कोई भी प्राणि पैर के नीचे दब गया हो, सताया हो, टकराया हो, इकट्ठा किया हो, दुःख पहुंचाया हो, ठोकर लगाई हो, धूल से ढका हो, प्राणों से रहित किया हो, वध किया हो तो इन सब क्रियाओं से लगने वाले पापों की आलोचना की जाती है।

प्र. इस सूत्र का क्या महत्त्व है ?
उ. इससे कर्मों का नाश होता है।

प्र. इस प्रकार किसने कर्मों का नाश किया ?
उ. अइमत्ता अर्थात् अतिमुक्तक मुनि ने इसके ध्यानसे कर्मो की निर्जरा करके कर्मो का क्षय किया।

प्र. इस सूत्र के ध्यान से कर्मो का नाश कैसे होगा ?
उ. आत्मनिंदा अर्थात् गुरुमहाराज या प्रभु के सम्मुख अपने द्वारा हुए पापों की निंदा करके अंतःकरण से उन पापों का प्रायश्चित करते हैं और उनकी क्षमा मांगते हैं। इस प्रकार कर्मो का नाश होता है। जिस प्रकार कोई अपराधी न्यायाधीश के सामने अपने अपराधों की प्रायश्चित के साथ अन्तःकरण से क्षमा मांगता है तो उसके अपराध माफ कर दिये जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा की निंदा से भी कर्म नष्ट हो जाते हैं।

 

Source-
Book Name: कुशल-विचक्षण ज्ञानाञ्जली

 

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