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तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ

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भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म बनारस (काशी) नगरी में हुआ था । उनके पिता का नाम 'अश्वसेन' और माता का नाम 'वामा' रानी था । भगवान् जब गर्भ में थे, तब उनकी माता ने अंधेरी रात्रि में अपने पार्श्व-पास से सर्प जाते हुए देखा । उस सांप के जाने के मार्ग के बीच में राजा का हाथ आते देखकर वामा रानी ने उनका हाथ ऊंचा किया । इससे सांप छूए राजा जग गए और रानी से प्रश्न किया कि मेरा हाथ क्यों ऊंचा किया ? रानी ने सांप की बात कह दी । अश्वसेन राजा को विश्वास नहीं हुआ । उन्होंने दीपक का प्रकाश करके देखा तो वास्तव में सांप जाता हुआ दिखाई दिया । उस समय राजा को विस्मय हुआ कि यह सांप मुझे तो दिखाई नहीं दिया, पर उस घोर अंधकार में भी रानी को दिख गया, तो यह गर्भ में रहे बालक का ही प्रभाव होना चाहिए । इसीलिए जब भगवान् का जन्म हुआ, तब उनका नाम 'पार्श्वकुमार' रखा गया ।

भगवान् पार्श्वनाथ का रंग मरकत नीलमणि की भांति नील वर्ण का था । उनकी आयु १०० वर्ष की तथा उनका शरीर नौ हाथ प्रमाण था । उनका लांछन भी सर्प था । पौष वद दशमी को उनका जन्म हुआ ।

जब पार्श्वकुमार बालयव ही थे, तब उन्होंने देखा कि लोग टोले के टोले इकट्ठे होकर जा रहे हैं । जानकारी लेने पर पता चला कि सब जन गंगा तट पर कमठ तापस पंचाग्नि तप करके धुनि रमाकर बैठा है, वहाँ जा रहे हैं । भगवान् ने ज्ञान का उपयोग लगा के देखा तो पाया कि जिस काष्ठ (लकड़े) को वह जला रहा है, उसमें तो सर्प का जोड़ा है । प्राणि मात्र पर दया करनेवाले करुणासिंधु प्रभु उसी समय उसके आश्रय पर आए और उस तापस से जलते सांप के लिए कहा । तापस ने क्रोधित होकर कहा, तुम तो राजकुमार हो । तुम तप-जप क्या जानो ? घोड़े पर घूमना फिरना जानते हो । फिर भी भगवान् ने उस बड़े लकड़े को चिरवाया तो उसमें से अधजला सांप का जोड़ा निकला । उस सांप के जोड़े को नवकार मंत्र सुनाया । जिसके फलस्वरुप सांप सर्पिणी मर कर धरणेन्द्र नागदेव और पद्मावती देवी हुई । दोनों देव देवी आज भी प्रभु के भक्तों का वांछित पूर्ण कर रहा करते हैं ।

इधर वह कमठ तापस जिसकी अपकीर्ति हुई थी, वह भगवान् से वैर रखने लगा । मरकर वह अज्ञान तप के कारण 'मेघमाली' देव हुआ । जब प्रभु दीक्षा लेकर ग्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे, तब उस मेघमाली देवने खूब बरसात करी । मुसलधार वर्षा से प्रभु के नासिका (नाक) तक पानी आ गया । धरणेन्द्र पद्मावतीने आकर कमल पर प्रभु को लेकर छत्र की तरह फन फैला लिये । आखिर वह मेघमाली देव प्रभु को घोर उपसर्ग देकर चला गया । उसने भयंकर/दारुण कर्मों का बंधन किया ।

पार्श्वनाथ भगवान् का अचिन्त्य प्रभाव आज भी कम नहीं है । आपके नाम से 108 तीर्थ विद्यमान हैं । जिनमें शंखेश्वर पार्श्वनाथ, नाकोडा, फलोधी, कलिकुंड, लौद्रवा, गोडी पार्श्वनाथ आदि प्रमुख है । इससे पता चलता है कि आज भी भगवान् की महिमा कम नहीं हैं । 'भद्रबाहु स्वामी' ने ''उवसग्गहरं स्तोत्र', 'अभयदेवसूरि' ने 'जयतिहुमण स्तोत्र' और 'सिद्धसेन दिवाकर' ने 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' की रचना में पार्श्वनाथ प्रभु की ही स्तुति की है, जो कि बहुत ही चमत्कारी है ।

पौष वदी अष्टमी-नवमी-दशमी इन तीन दिनों का अठम (तेला) आज भी हजारों लोग करते हैं । श्रावण शुक्ला अष्टमी को प्रभु पार्श्वनाथ का सम्मेतशिखर तीर्थ पर निर्वाण हुआ ।


Source-

Book Name: कुशल-विचक्षण ज्ञानाञ्जली

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