स्वप्नदेव श्री केशरिया पार्श्वनाथ भद्रावती तीर्थ परिचय 

स्वप्नदेव श्री केशरिया पार्श्वनाथ भद्रावती तीर्थ परिचय 

भद्रनाग मंदिर -

 

गाँव में प्रवेश करते हि सडक के किनारे पर यह मंदिर लगता है । कहा जाता है के यह मंदिर हजारों वर्ष पुराणा है । इस मंदिर की मुर्ति को कई मणीभद्र देव की और कई बुद्ध देवकी बताते रहे है । इस मंदिर में प्रतिवर्ष मेला लगता है। कहते है मेलेके समय एक बडे भारी नाग देवताके दर्शन होते है। इसपरसे कुछ लोगोंका अनुमान है के यह धरणेन्द्र देवका मंदिर होना चाहिये । सन १२८६ में इस मंदिर का जिर्णोद्धार ग्रामवासियोंकी औरसे किया गया । और भद्रनाग मंदिर के नामसे इस मंदिरकी घोषणा कर दी गई। इसके अहाते में एकहि पत्थर में उत्कीर्ण की हुई एक पुरातन बावडी भी है।

 

पुरातन किला -

 

यहाँ पर एक पत्थरों से बंधा हुवा अच्छा प्राचिन किला भी है। जो अब खण्डहर हो गया है। किलेकी ऊँची जमीनके भाग को देखने से ज्ञात होता है। के यहाँ राजाका दरबार लगा करता था। किले के अन्दर एक बडीसी चौमुखी बावडी भी है।

 

विंझासन की गुफा

 

गाँव के थोडे हि दुर पर एक पहाडी है। उस में एक दुसरे से लगी हुयी तीन तरफ तीन गुफाएँ है । गुफाओंकी पाषाणी दिवालों में तीनो तरफ तीन पद्मासनस्थ सात फुट की उंचाई में बडी बडी मुर्तीया उत्कीर्ण की हुई है। खण्डीत दशा में होनेके कारण यह मुर्तीयाँ जैनोकी है, या बौद्धोक इसका अनुमान लगाना मुस्कील है । यह एक प्राचिन गुफा है। इसे विशासन की पहाडी गुफा कहते है ।

 

कईबार इस गुफा में जैनों के महान तपस्वी योगीराज श्री मोतीलालजी महाराज ने अति कठीण तपस्यायें करते हुये योग साधन किया है। इनका स्वर्गवास विक्रम संवत २००० कार्तिक वद १३ को भोपाल में हुवा है। भोपालके वर्धमान टेकडीपर आपका निवास रहता था, भोपाल के श्री संघद्वारा आपके पादुका की प्रतिष्ठा संवत २००६ मिति माघ सुदी १ को वंहिपर की गई। इस तीर्थ क्षेत्र में आपने कई चातुर्मास किये। उपधान तप वगैरे कई प्रकारकी तपस्यायें करवाई | आपके योग साधनका बहोतसा जीवन यहीं पर बिता है। इस क्षेत्र में श्री संघ द्वारा गुरु मंदिर बनवाया गया है। जिस में आपकी मूर्ती बिराजमान है । यह मूर्ती हिंगनघाट निवासी श्रीमान तीलोकचंदजी कोठारी और श्रीमान पुनमचंदजी कोठारी जो श्रीमान हिरचंदजी अमोलकचंदजी फर्म के मालीक है । इन द्वय भ्राताओंके ओरसे बनवाई गयी है।

 

श्री चंडिका देवीका पुरातन मंदिर -

 

श्री पार्श्वप्रभु के मुख्य मंदिर के पिछे समिपहि में यह पुरातन मंदिर भग्नावस्था में आज भी खड़ा है। देवी के प्रतिमां के साथ साथ अनेक प्राचिन मूर्तीयां पद्मासन अवस्था में रखी हुई है। जो खण्डीत है। यह मुर्तीयाँ जैन, बौद्ध, और वैदिक धर्मोकी है। पुरातत्व की सामग्री होने से सब मुर्तियाँ सरकारकी देख रेख में थी । दिवाल पर शीला लेख भी ख़ुदा हुवा है। पर घीस जानेके कारण पढा नही जा सकता ।

 

छोटी पहाडी़ -

 

उक्त मंदिर के पिछे थोडे हि फासले पर यह टेकडी है। इस टेकडी पर उपरोक्त महान योगीराज श्री मोतीलालजी महाराज के शिष्यरत्न महान तपस्वीराज श्री चारित्रमुनी महाराज का ८४ वै उपवास के दिन वंहिपर स्वर्गवास होग या था इसी कारण इन के पादुका की स्थापना इस टेकडी पर कि गई है। हिंगणघाट निवासी श्रीमान पुखराजजी कोचरने २००१ रुपये की बोली के साथ उनका दाह कर्म भी यहीं पर किया। आपकी भावना ९० उपवास करने की थी। इसके पेस्तर के वर्षमेहि आपने ६१ उपवास इस क्षेत्र में किये थे । इस तरह यह क्षेत्र एक प्रकार से तपोभुमी भी है। उनकी दिक्षाभी यहोपर हुई है। उनकी मूर्ती की भी स्थापना इस क्षेत्र के गुरु मंदिर में की गई है।

गुरु मंदिर

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परमपुज्य महान योगीराज श्री १००८ श्री मोतीलालजी महाराज और परमपुज्य महान तपस्वी श्री चारित्र मुनी की मूर्ती यें उपरोक्त मंदिर में स्थापित है ।

 

डोलारा तालाब -

इस टेकडी से लगकरहि १७ एकर का यह एक बडा भारी तालाब है। इसके मध्यभाग में एक टेकडी है। इस पर जाने के लिये तालाब मे से हि बड़े बड़े पत्थरोंसे बंधा हुवा एक पूल था । जिसकी चौडाई ७ फूट थी । कहते है, इस तालाबमें से सेंकडो मुर्तीयाँ निकली थी। जिन में अनेक जैन मुर्तीया भी थी। लेकीन वह सब खण्डीत थी। सरकारने यह सब मुर्तीयाँ पुरातन स्मृति चिन्ह होने के कारण दुसरे महत्वपूर्ण स्थानोंपर भिजवादी थी।

उस टेकडी पर रहे हुवे भग्नावशेषोंसे यह मालूम होता है के यहां पर कोई भी क्यों न हो एक भव्य और सुंदर मंदिर जरूर था यहां का प्राकृतिक दृश्य बडाहि सुहावना लगता है। इस पवित्र भरत भूमी में महान संस्कृती के पुरातन स्मृति चिन्ह कहीं पर भी क्यों न हो नजर के सामने आने पर, मानव हृदय में उसका पवित्र प्रभाव पडे बिना नहीं रहता। इस टेकडी पर अगर जल मंदिर की योजना तयार की जाय तो बिलकूल पावापुरी साही सीन यहाँ बन जा सकता है।

सहस्त्रों निशा की कालिमासे ढंके हुवे सम्राट अशोक कालीन यह पुरातन स्मृती चिन्ह और यहां के सेंकडो हि तालाब और उन तालाबों के संबोधित किये जाने वाले उनके पुरातन नाम, जैसे चितामण तालाब, सूर्यकुंड तालाब वगैरेह सेंकडोहि कुएँ, बावडी, जगह जगह रहे हुये मंदिरों के भग्नावशेष और मंदिर, बडी बडी खण्डीत मुर्तीयाँ, जो सरकारी संरक्षण में पुरातन स्मृती चिन्ह होने कारण आकिवालाजीकल डिपार्टमेंट के अधीन अभिभि इस भद्रावती में मौजूद है।

इस तरह उपर बताये मुताबिक हर एक पुरातन स्मृति चिन्हों पर विचार कर कल्पना करने से आपको इस भद्रावती के महानता का और प्राचिनताका सुन्दर आभास जरूर हो सकेगा ।

 

जैन, बौद्ध और वैदिक मतके अनुयाइयोंसे बसी यह नगरी तीनों मतों के संमिश्रण का एक बड़ा भारी केंद्र स्थान थी, ऐसा इन सारे पुरातन स्मृती चिन्होंसे प्रतीत होता है ।

यहांपर मौर्य, गुप्त, आन्ध्र, राष्ट्रकूट, चालुक्य, वाकाटक आदि के पश्चात गोंड राजाओं ने भी राज्य किया था। और अंत में भोंसलोंका राज्य हुवा था । बाद में २१ मे सन १८१८ में अंग्रेजोने युद्ध कर अपना राज्य स्थापित किया । इतिहास वेत्ताओंका कथन है के मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त जैन धर्मानुयाई था । इस मौर्य साम्राज्य में जैन धर्म को विशेष महत्व प्राप्त हुवा था । अशोक भि मौर्य वंशका एक प्रतापी सम्राट था। उसका अन्तःकरण सब धर्मोके प्रति समभाव मय था । सम्प्रति जो की अशोक का पोता था जैन धर्मका पक्का भक्त था । और उसने देश में लाखों मूर्तीयाँ बनवाकर फैला दि थी । उस काल में धार्मिक द्वेष बढा हुवा नहीं था । इसलिये अनुमान होता है के, इस भद्रावती में जो यह सब धर्मोकी मुर्तीयां पाई जाती है, वह सब मौर्यकालीनहि है ।

सम्राट चंद्रगुप्तके साथ श्री भद्रबाहुस्वामी जब इस दक्षिण भारत में पधारे, तब इस भद्रावती नगरीके पासहि प्राकृतिक सौंदर्य से विभूषित वन उपवन के गुफाओं में आत्मसाधन और तपस्यायें की थी ।

चीनी प्रवासी हुयेनत्सांगने सन ६२९ से ६३९ तक मध्यप्रदेश के स्थानोंका निरिक्षण करते हुवे लिखा है के इस भद्रावतीका राजा अत्यंत विद्याप्रेमी, कलाप्रेमी और परमधार्मिक था। यहांपर सेंकडो बड़े बड़े मठ और मन्दिर थे । और विद्यालय भी । हजारोहि ऋषी और मुनी यहां रहते थे ।



श्री. सी. मिडलन स्टुअर्स

 

यह अंग्रेज सज्जन चांदा के पोलीस सुपरिटेण्डेण्ट ( डी. एस पी.) वे इन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के ता. ६ जुलाई सन १९२४ के अंक में इस भद्रावतीके संबंध में एक लेख लिखा था। इस लेखका कुछ मुख्य अंश आगे दिया गया है। इससे मालूम होगा के अंग्रेज लेखकों के मनमेभि, भद्रावतीके प्राचिनताकी जिज्ञासा और दलचप्पी थी। यह पुरा लेख फर्म मे मंडा हुवा पेढीमे रखा हुवा है। इसी लेख में श्री पार्श्वनाथ प्रभुकी इस चमत्कारिक और लौकीक प्रतिमाको उक्त लेखकने स्वप्न देवके नामसे संबोधित किया है।



स्वप्नदेव

THE DREAM GOD BY C. MIDDLETON-STEUWART

In this article, the story is told of the rise of a Jain Temple which promised to be one of the most remarkable Buildings of its kind in India. It was erected around the site of the Statue of Parasnath discovered a dozen years ago-a spot which tradition carries back to the creation. And someday it may be the principal pilgrimage center in India as well as in the Central Provinces.

Found by a Bishop of the church, and traced through a drawn by the brother of a Marwari Cotton Broker, Parasnath once again gazes inscrutably before him, whilst around him, and on the site of his ancient shrine, is arising a temple, towards the magnificence and adornment of which the wealth of the Jain Community of India is being poured out with lavish hand.

For centuries he slept amidst the dust and ruins of forgotten fanes in ancient Bhadravati bowing before the edicts of Ashok, he surrendered to the call of the Gautama, and mother Earth, who first bared her bosom for the old beliefs, mercifully took into her shrouded embrace the neglected image.

The God which thousands of years before had seen that fierce conflict of the Mahabaric heroes for the possession of the Shyam Karna steed, to its doctrine of meekness, prepared for slumber, Iulled by the distant chanting of monks in their rock-hewn cells.

And Parasnath biding his time, slept.

Today, if those pious monks of Asoka's time, could revisit the scene, they would find the silence of desolation and the jungle where once their monasteries stood. They would see the blackness of a thousand nights concealing the seated Budha in the caves of Wijasan-bis only attendants of the bat.  

Gone was the great city of their day; gone were the Sangharams and colleges of their learning. But the temple of Parasnath, ruined though it be, still stands. Parasnath despised, neglected, and forgotten then, stirs in his sleep now, and from the hushed gloom of his ruined abode comes the clang of the bell and the mystic murmur of the Sanskrit Mantras.

To this day, the jungle and open spaces under cultivation yield to the plow, interesting relics of a bygone civilization. It was in some such fortuitions way that the head of the Scottish Mission in Chanda discovered the statue of Parasnath. It lay in a tangle of weeds half buried in the earth but partially protected by the trampled-down remains of an old temple. It was removed and placed in a shed and declared a protected monument by the Government.

The Times of India Illustrated Weekly, July 6th, 1924.

   

 

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तीर्थों का महत्व

 

वैसे तो हर जगह परमपुज्य तीर्थकर देवोंकी प्रतिमाएँ बिराजमान रहती है। गांव और शहरों में भी मन्दिर वगैरे सब साधन मौजूद रहते हैं। किंतू तीर्थ स्थलों में जिन भावनाओंका असर हृदय में पैदा होता है पर पर में या गाँव में नहीं। 

बहुतेक तीथोंके स्थल अपने मन और हृदयपर कोई विशिष्ट प्रकारके भक्तिमय भाव और वैराग्यमय भावके असर पैदा करते है। जब कभी ऐसे स्थलों में हिरने फिरनेका अवसर मिलता है उसवक्त अपने हृदय में प्रफुल्लता और पवित्रता के भाव पैदा होकर, संसारके असारताकी और हृदयका झुकाव सहजहि में होताहि है ।

संसारसे पार उतरनेके लिये मुख्य नौका रूपी वस्तु भाव है। ऐसे क्षेत्रों में यह सब शुद्ध रूपसे मिल सकते है। वैराग्यमय, और • भक्तिमय भाव हृदय में पैदा हो ऐसे सुन्दर साधनामय तीर्थ । नास्तीकों को भी आस्तीक बना देते है।

अंधकार में भटकते हुवे प्राणियोंको प्रकाश मिलने और जीवनके बंधनोको छुडाने के लिये, तीर्थधाम भी एक अपूर्व और सरल साधन है। इन्हीमेंका चांदा जिल्हेके भद्रावती ( भांदक ) ग्राम में आया हुवा यह एक श्री पार्श्वनाथ प्रभुका भव्य और मनमोहक तोर्थ स्थल है। यह प्रतिमांजो अतीहि सुन्दर, रमणीय, भव्य और तेजोमय होते हुवे चमत्कारिक है।

यह प्रतिमा १३०० वर्ष पुरातन है। जो स्वप्न द्वारा यहाँ प्रगट हुई है। पुराने जमानेके इस प्रदेशके गव्हर्नर सर फेंक स्लाय अंग्रेज होते हुवे भी इस तीर्थ के प्रती सदा आदर भक्ति रखते थे। और कई बार दर्शनार्थ भी आते रहे है। तीर्थ के कम्पाउन्डका जो मुख्य प्रवेश द्वार बना हुवा है। उस वक्त इसके बनाने में आपने एक हजारकी आर्थिक सहायताभि की थी। इसमें रुपयोंका सवाल नही है। इसके पिछे रहे हुवे श्रद्धा और भावनाका महत्व है। जो एक बजैन, और अंग्रेज में भी इस तीर्थ के प्रती पैदा हुई। इसी तरह उस वक्तके चांदा जिल्हेके पोलीस सुपरिन्टेडेंट थे, जिनका जिक्र आगे जा चुका है। वे भी एक अजैन और अंग्रेज होते हुवे भी इस तीर्थ के प्रति सदा आकषित रहते थे। 

प्राचिन कालसेहि हर वक्त श्री पाश्र्वं प्रभुके प्रतिमांजीका प्रभावशाली और चमत्कारिक परिचय तत्कालीक मिलता रहा है। जिसके दर्शन पुजनसे और स्मरणसे भक्तोंके विकटसे विकट संकट दूर हुवे है। इसके हजारोहि दाखले आपको ग्रंथों में मिलेंगे। इसी कारण पुरातन कालसेहि तेवीसवे तीर्थंकर श्री पार्श्व प्रभु की बहुतहि अधिक ख्याती और प्रसिद्धी है। भावी तीर्थंकरके रुप में हजारों लाखो वर्ष पहिलेहिसे अनेक जगह अनेक नामोसे प्रभुकी प्रतिमाँ, देवी, देवता, बासुदेवो और राजा महाराजाओं द्वारा पुजी गई है। और अनेक चमत्कारोंके साथ प्रगट भी हुवी है। इसका हर एक जगहका इतिहास मालूम कर लेनेपर हृदय में खुब आल्हाद, आनंद और भक्तिरस पैदा होता है।

इस कलियुग में आज भी जंगलमे मंगलका ताजा दाखला इस भद्रावती ( भांदक ) ग्राम में मौजूद हैं। यहां आकर दर्शन, पुजन करनेसे पाठक चुके नहीं। यह एक बडाहि मनोरंजक और प्रभावशाली तीर्थस्थान है।

 

प्रतिमांजीका प्रगट होना

इस भद्रावती गांव के किनारे पर हि जंगल की एक घनी झाडी में घिरे हुवे श्री पार्श्व प्रभुके प्रतीमांजी के दर्शन, चांदा के चर्च के एक पादरी को इस झाडी में घुमते हुवे अचानक हुवे। उस वक्त यह प्रतिमांजी आधी  जमीन में और आधी जमीन के उपर प्राचिन मन्दिर के भग्नावशेषोंसे रक्षीत विराजमान थी। इस पादरी द्वारा सुचना मिलते हि सरकारने इस प्रतिमांजी को अपने कबजे में लेकर आकिलाजीकल डिपार्टमेन्ट के अन्डर में व्यवस्थित रखकर इसे 

 

पुरातन स्मृती चिन्ह घोषीत किया था। इसी अरसे में श्री चतुरभुजभाई पुंजाभाई जो अकोला के निकटवर्ती तीर्थ क्षेत्र श्री अंतरिक्ष पार्श्वांथ  शिरपूर पेढी के मॅनेजर थे इन्हे संवत १९६६ माघ सुद ५ सोमवार की रात को एक स्वप्न दिखाई दिया। इस स्वप्न का वर्णन श्री मोहनलाल भाई जवेरी अमदाबाद निवासी के लिखी हुई पुस्तक प्रकट प्रभावी पार्श्वनाथ नांम की पुस्तक में आया है। जो निचे दिये गये चित्रों द्वारा बताया गया है। यह पुस्तक संवत १९७९ में गुजराती भाषा में प्रगट हुई थी ।

 

श्री चतुरभुजभाई निचे दिये गये चित्रोंके मुताबीक देखते हुवे नागदेवसे वार्तालाप कर रहे है।

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 - श्री अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ तीर्थके मुनीम श्री चतुरभुजभाई पुंजाभाई को संवत १९६६ वैसाख सुद ५ सोमवार रातको स्वप्न आया के

 

 

 

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- वे स्वयं जंगल में फिरते है, और उनके पिछे एक दस हाथ लम्बा काला नाग आ रहा है -

 

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- जब वे थक जाते है तब वे कहते है, 'हे नागदेव मैंने आपका क्या अपराध कियर,' तब नागदेव कहते है के ' तूम पांचसो रुपीया खर्च करो, मैं तुम्हें एक चमत्कार बताऊं,' तब वो कहते हैं, 'मैं गरीब आदमी हूं पांचसो रुपीया कहांसे लाऊं।

 

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तब नागदेव कहते हैं के अच्छा तू खर्च नहि कर सकता तो तू तेरे पिछे देख,' जब वे पिछे देखते है, तब नागदेव कहते है की "यह एक सुन्दर भद्रावती नगरी और महाप्रभाविक श्री केशरिया पाश्र्वनाथ प्रभुका महान तीर्थ क्षेत्र था 

 

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- लेकिन समयके परिवर्तनसे विच्छेद होगया है, सो इस तीर्थ के पुनरुद्धारका तू प्रयत्न कर' यह कहकर नागदेव अद्रश्य हो गये, और वे प्रभु के सम्मुख वंदन स्तुती करने लग गये।

 

 

 

उपरोक्त स्वप्न देखने के पश्चात चार दिन बादहि श्री चतुरभुजभाई माघ सुद ९ को आकोला से रवाना होकर भांदक जाये, यहाँ एक बुद्ध ब्राम्हण से उन्हे ज्ञात हुवा के प्राचीन कालकी भद्रावती यही भांदक है। तब उन्होंने अपनी खोज यहाँ शुरु की । झाडी में घुमते घुमते इन्हें इस प्रतिमा जी के दर्शन हुये। स्वप्न में देखी हुई इस प्रतिमाजी को देखकर उनके हर्षका पारावार नहीं रहा। यह प्रतिमां फणो सहित लगभग ६ फूट उंची है। और २३०० वर्ष पुरातन है। उस वक्त पिले रंगकी थी इसलिये केसरिया पार्श्वनाथ कहलाये गये। बाद में लेप करवाने से प्रतिमांजीका रंग शॉम होगया है। उपरोक्त स्वप्न और अपनी जांच, प्रतिमाजीके दर्शन वगैरेका सारा वृतांत, चांदा के श्री संघ के पास आकरके श्री चतुरभुज भाईने बतलाया, उस समय चांदा में मुनी श्री सुमती सागरजी बीराजमान थे। यह सारा वृतांत सुनकर चांदा का श्री संघ मुनी श्री सुमती सागरजी महाराजको साथ लेकर भांदक आया। श्री मुनी महाराजने प्रतिमांजी के दर्शन और निरीक्षण कर, नागदेव के दिये गये आदेश को पुष्टी करते हुवे आदेश किया के, तेवीसवे तीर्थकर श्री पार्श्व प्रभुकी, यह प्रभाव पूर्ण प्राचीन प्रतिमा है। और यह क्षेत्र भी बहोतहि प्राचीन मालूम होता है। इसलिये यहां शिघ्रहि जिर्णोद्वार करके, तीर्थकी स्थापना करना चाहिये। इस तरह नागदेवके रुपसे अधिष्ठायक देवने जो आदेश श्री चतुरभुज भाईको किया था, बहि आदेश उक्त श्री मुनी महाराजनेभी दिया।

 

उपरोक्त दैवी आदेश स्वप्न तथा स्थान के महत्व को समझकर, इस प्रतिमाजी को प्राप्त करने चांदा श्री संघने अर्जीयोंद्वारा सरकारसे मांग की प्रतिमाजीक सुरक्षा में लगा हवा खर्च ८०० रुपये लेकर, बांदा के संचाध्यक्ष श्रीमान सेठ सिद्धकरणजी गोलेच्छा के नाम, सरकारने सारी लिखापढ़ी कर देकर इस प्रतिमांजी को चांदा के श्री संघ के स्वाधिन किया और साथहि १० रु. सालाना टेक्स सुकर करके २१ एकर जमीन भी सरकारने दी। इस जमीन के अलावा और भी कुछ जमीन यहाँ के मालगुजारोंने इस क्षेत्र को बक्षीस दी । जीसकी योग्य लिखा पढी करली गई। लिखा पढीके सारे स्टॉप पेढी में रखे हुवे है । 

 

मध्यप्रदेश के भूतपूर्व गवर्नर श्री स्लाय साहाब ने भी अपनी संमति इस प्रकार ता१३-४-२१ को व्यक्त की थी। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि क्षेत्र का मुख्य द्वार आपके द्वारा प्रदत्त १ हजार रुपयो से ही बना है। आपने लिखा है -

 

I with Chanda officers came here to have a view of the Parasnath Temple and I am glad to see the beautiful Image of Parasnath and her strong and excellent buildings, at the same time found the management of the Temple in good hands.

 

There remains good work to be constructed and the community should take more interest in completing it.

 

I attended many Jain Places but did not see satisfactory management here, moreover, I see not at other places but only here the protection of fish in tanks which I am very glad about. Mr. Hiralal takes great trouble to devote his life to these works.

 

I am pleased to release the rent of the fand which the Govt. has paid to the Temple and to order to open the stone-mine too for the works herein.

 

I am very much obliged to Mr. Hiralal that he has hospitably treated us to a dinner.



Bhandak 13-4-21                                                                                        Sd. Sly C. C.

 

 

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