यह सर्वविदित है कि नव तत्त्व का निरूपण सर्वज्ञ परमात्मा ने किया है और गणधर
आदि भगवंतों ने इसे सूत्रबद्ध किया और परम्परागत आचार्य भगवंतों ने इसे शास्त्रबद्ध
किया। सापेक्ष भव से विचार करें तो जैन दर्शन ही नव तत्त्व है। नव तत्त्व ही जैन
दर्शन है। समग्र द्वादशांगी हो अथवा द्वादशांगी का बारहवाँ अंग दृष्टिवाद का एक
विभाग रूप चौदह पूर्व हों, परन्तु नव तत्त्व तो समग्र श्रुत समुद्र का नवनीत है ।
यह नव तत्त्व सम्यग्रज्ञान है।
इन नव तत्त्वों पर अंतरंग दृष्टि से वास्तविक श्रद्धा-परिणाम सम्यग्दर्शन है और नव तत्त्व
में हेय, ज्ञेय, उपादेय का बोध करने के पश्चात् हेय तत्त्वों का त्याग करके उपादेय
तत्त्वों का आचरण करना सम्यक् चारित्र है।
श्री भगवती सूत्र में भी श्रावक की ज्ञान समृद्धि के विषय में वर्णन आता हैउसमें बताया है
कि ‘अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव संवरणिज्जरकिरिया -
हिगरणबंधप्पमोक्खकुसला' जिसने जीव-अजीव को जान लिया, जिसे पुण्य पाप का
ज्ञान उपलब्ध है, जो आसव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरणबंध और मोक्ष को जानने
में कुशल है अर्थात् जो आत्महित की अभिलाषा रखने वाला है, उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति,
शुद्धि और स्थिरता के लिए नव तत्त्वों का बोध गहन रूप से प्राप्त कर लेना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में भावपूर्ण सुरम्य चित्रों सहित न्नव तत्त्व का भाव प्रकट किया गया है।